गालियों का समाज शास्त्र


गालियों का समाज शास्त्र

गालियों  का प्रचलन समाज में कब से प्रारम्भ हुआ और सबसे पहले किसने किसको गाली दी थी तथा सुनने वाले पर उसकी प्रतिक्रिया किस रूप में प्रकट हुई थी– यह एक मजेदार शोध का विषय हो सकता है। अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों ने गालियों के उद्भव और विकास पर युगों-युगों से माथा-पच्ची की हैकिन्तु इस अथाह रहस्य को आज तक शायद कोई नहीं जान पाया। तथापि इस लेख के पाठकों के समक्ष बिना कोई गाली-गलौज किये यह शिष्टलेखक अशिष्ट मानी जाने वाली गालियों के परम्परागत मूल्यों की विवेचना करने की चेष्टा कर रहा है। हमारे विचार से गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के साथ-साथ ही हुआ होगा। तीक्ष्णअप्रिय और अपमानित करने वाले शब्दों को गाली’ माना गया है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि शब्दों के निर्मम प्रहार जब विद्रूप हो उठें और जिन्हें सुनकर मनुष्य क्रोधित और अनियंत्रित हो उठेवह गाली माना जाता है। शब्द-प्रहारशस्त्र-प्रहार से कहीं अधिक घातक और मर्मभेदी हो सकता हैऔर प्राय: होता भी है। स्मरण कीजिएमहाभारत का वह प्रसंग जब द्रोपदी ने दुर्योधन का उपहास अंधे का अंधा’ कहकर किया था। इस उपहास का ही परिणाम राष्ट्र के सामने महाभारत’ के रूप में उपस्थित हुआजिसमें भारी नरसंहार और रक्तपात हुआ।
गालियों का प्रचलन सदियों से समाज में रहा है। गालियाँ निर्बल का शस्त्र मानी गयी हैं। बलवान व्यक्ति अपनी शारीरिक और शस्त्रगत ताकत से जब निर्बलों पर आक्रमण करते हैंतो अशक्त और निर्बल जन गालियों के प्रहार से ही उनका प्रतिकार कर पाते हैं। वीर और साहसी व्याqक्तयों को गाली देने की आवश्यकता ही क्या हैवे तो अपनी शक्ति के बल पर ही प्रतिद्वंद्वी का मानमर्दन कर सकते हैं। गाली देना उनके गौरव के अनुवूâल भी नहीं माना जायेगा। श्रीरामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने परशुरामजी को नसीहत देते हुए कहा है
वीर व्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
किन्तु अंगद-रावण संवाद मे गालियों का उन्मुक्त आदान-प्रदान हुआ है। रावण व अंगद दोनों ही लगभग समान रूप से बली थे। दूसरेअंगद  शांति-दूत बनकर गये थे। उन्हें शस्त्र-प्रहार की अनुमति नहीं थीअत: उन्होंने शब्द-प्रहार का सहारा लिया। इसी प्रकार रावण भी राजनीति के नियमों के अनुसार शांति-दूत पर शस्त्र-प्रहार नहीं कर सकता थाअत: उसने भी शब्द-प्रहार यानी कि गालियों का ही अवलंबन लिया। गालियाँ मानव-मन के भले-बुरे उद्वेगों को व्यक्त करती हैं। गालियाँ देने और गालियाँ सुनने वाले– दोनों ही पक्ष भावनात्मक रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। इससे दोनों की असली औकात खुलकर सामने आ जाती है। किसी ने कहा भी है कि यदि किसी की औकात आँकनी हो तो उसे क्रोध दिला दो।
गालियों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि वे मानव-जाति के परस्पर सम्बन्धों को अनायास उद्घाटित करती हैं। यूँ तो गालियाँ विश्व की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में कही-सुनी जाती हैंकिन्तु भारत में गालियों का अपना अलग ही अन्दा़ज है। भारत में गायी हुई गालियों का बुरा नहीं माना जाता। कदाचित् इसीलिए हमारे यहाँ विवाह-शादियों में तथा होली जैसे त्यौहारों पर गालियों को गाने की पुरातन प्रथा चली आ रही है। विवाह मेंं महिलाओं के द्वारा और होली पर पुरुषों के द्वारा गायी जाने वाली और उमंगमय गालियों का कोई बुरा नहीं मानता
जेंवत देहिं मधुर धुनि गारी।
ले ले नाम पुरुष अरु नारी।।
समय सुहावनि गारि विराजा।
हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।
श्रीराम के विवाह-समय पर जनकपुर की महिलाओं के द्वारा गायी हुई गालियाँ आज भी विवाह-बारातों में हम अपने-अपने संदर्भ में अपनी पारिवारिक महिला-सखियों-सहेलियों से सुनते हैं और प्रसन्न होते हैं। जबकि अन्य किसी अवसर पर दी हुई किसी की भी गाली हमें गोली की तरह बींध कर रख देती है और क्षणभर में खून-खराबे की नौबत आ जाती है।
गालियों के अनेक प्रकार हैं। कुछ गालियाँ जाति-बोधक होती हैंतो कुछ संबंध बोधक। कुछ गालियाँ मानव की विकलांगता से जुड़ी होती हैंतो कुछ उसके स्वभाव से। कई गालियाँ मानव का जानवरों से तादात्म्य स्थापित करती हैंतो कई गालियों में उसके बौद्धिक स्तर की धज्जियाँ उधेड़ दी जाती हैं।
      क्रोध में दी गई गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने का भाव निहित होता हैजबकि उमंग और अनुराग में दी गई गालियाँ घनिष्टतम प्रेम की प्रतीक मानी जाती हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि गालियों का उच्चारण मानव की दमित कामेच्छाओं को शमित करता है। गालियों से परहेज करने वाले कितने ही तथाकथित शिष्ट लोग एकांत में अशिष्ट और अश्लील हरकतों में लिप्त देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जा सकता है कि गालियों का प्रचलन मानव के आदिम विकास-काल से आज तक यथावत् बना हुआ है। गालियों से मनुष्य के काम और क्रोध– इन दो विकारों का निस्तारण काफी हद तक हो जाता है।  होली का त्यौहार गालियों के आदान-प्रदान का उन्मुक्त त्यौहार है। इसे शास्त्रकारों ने मदनोत्सव की संज्ञा दी है। मदन का अर्थ काम से है। भारतीय जन अपने काम-गत विकारों का निस्सरण करने के लिए होली पर गोली छान कर गाली बकते हुए देखे जाते हैं। यह परिपाटी सदियों से चली आयी है। शास्त्रकारों-विद्वानों ने इसका अनुमोदन भी किया है और इसे हमारी धार्मिक आस्थाओं से जोड़े रखने की चेष्टा भी की है। उन्होंने हिरण्यकश्यपु की बहन ढुंढा (होली) को जलाते समय गालियाँ बकने का शास्त्रीय विधान निर्धारित किया हैजिससे कि वह राक्षसी तृप्त और प्रसन्न होकर अपनी दाह-शक्ति को प्रचण्ड बनाये रखे
तमग्नित्र्रिपरिक्रम्य शब्दै लिंग-भगांकितै,
तेन शब्देन सा पापा राक्षसी तृप्तिमाप्नुयात्।
जो भी होगालियों का अपना एक अलग समाज-शास्त्र है जिसे मानव की भावनात्मक-वैचारिक और संवेदनात्मक ऊर्जा के संचयन तथा उसमें उत्पन्न हुए अनावश्यक विकारों के निस्तारण के लिए हमारे पूर्वजों ने निर्धारित किया है। इसमें तथाकथित सभ्यतावादियों के अरण्य-रोदन से कुछ भी होने जाने वाला नहीं है। यह सृष्टि गाली से ही शुरू हुई थी और गाली पर ही समाप्त होगीयह एक शाश्वत सत्य है।
क्योंकि मानव-देह एक गाली ही है जो गलीज जगह से जन्म लेकर गलियों-गलियों भटकती अन्त में गलकर रह जाती है। अत: इस देह के गलने से पहले गालियों के मर्म को समझ लेना बहुत आवश्यक है।

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