भागवत-भूमिका


अपनी बात

शब्दश : जीवंत कथाऽनंद

भगवद्-कथा-प्रेमियों के बीच गोलोकवासी पूज्य श्रीरामचंद्र केशव ‘डोंगरेजी महाराज’ का नाम अतीव श्रद्धा और हार्दिक निष्ठा के साथ स्मरण किया जाता है । भक्ति-जगत में ऐसे दुर्लभ संत भूलोक-वासियों को उनके सुकृतों के परिणामस्वरुप ही उपलब्ध हो पाते हैं । ऐसे संतों के दर्शन, सानिध्य और उनकी हृदयस्पर्शी वाणी से अनायास ही लोगों में भक्ति की, परोपकार की और आत्मकल्याण की प्रेरणा जागृत हो उठती है ।

प्रात:स्मरणीय ‘श्रीडोंगरेजी महाराज’ ऐसी ही दुर्लभ विभूति थे । उनके कथा-सत्रों में हजारोंलाखों श्रोता कथा-उपवन में समाधि का दिव्यानंद अनुभव करते थे । सादगी, सौम्यता, दृढ़ आत्मानुशासन और अटूट भगवद्-निष्ठा से ओतप्रोत पूज्य ‘श्रीडोंगरेजी महाराज’ का आभामण्ड ल ऐसा अलौकिक था कि बरबस ही लोगों को अपने गुरुत्वाकर्षण में आबद्ध कर लेता था । उनके अनेक अनुरागी अनुयायी भक्त उनकी कथा-गंगा में निरन्तर अवगाहन करते रहने के प्रलोभन से उनके पीछे-पीछे देश-देशान्तर में भ्रमण करते रहते थे ।

पूज्य महाराजश्री की कथा-शैली अत्यन्त सहज-सरल होते हुए भी उसमें वेदांतों के गूढ़ रहस्यों को सरलता और तरलता के साथ सामन्यजनों की बुद्धि में स्थिर और स्थापित करने का अद्भुद और दैवीय प्रभाव विद्यमान था । आजकल के ‘कथा-कौतुकी’ कथाव्यासों के विपरीत नृत्य-संगीत और चुटकुलों से नितान्त निरापद उनकी समाधिस्थ शब्दावली श्रोताओं के कर्णपुटों को आनन्दित करती हुई उनके हृदय में विराजमान शिवस्वरूप आत्मा का अभिषेक करती प्रतीत होती थी । श्रोताओं को कथा के आनन्दामृत से आप्यायित करने वाली इस ‘संत-वाणी’ ने अनेकों का उद्धार किया और आज भी वह ग्रंथ-रूप में संसार की भवाटवी में भटके लोगों को भक्ति और मुक्ति की राह पर प्रेरित कर रही है ।

पूज्य महाराजश्री अपने कथा-सत्रों में पहले-पहल गुजराती-मराठी-मिश्रित भाषा में कथारस का पान कराते थे । ये दोनों भाषाएँ उनकी मातृभाषा की तरह थीं । इनमें उनके भाव-विचारों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति सहज संभव हो पाती थी । जन-सामान्य की बोली-भाषा में वेद-शास्त्र और पुराणों का गूढ़ ज्ञान सरलतम होकर प्रगट हुआ, तो  उनकी कीर्ति का विस्तार होने लगा और महाराष्ट्र-गुजरात के बाहर से भी उन्हें कथा-सत्रों के निमित्त आग्रह और आमंत्रण प्राप्त होने लगे । किंतु, भाषा की अनभिज्ञता के चलते अनेक श्रोता इस कथामृत से अतृप्त रह जाते थे । 

सम्भवत: हिन्दी भाषा में प्रथम बार मथुरा में श्रीकृष्ण-जन्मस्थान पर सन् १९८१ ई. में उनके व्यासत्व में ‘श्रीमद्भागवत-कथा’ का आयोजन हुआ था । इस कथा-यज्ञ के मुख्य यजमान प्रसिद्ध उद्योगपति स्व. जयदयालजी डालमिया थे । इसमें हिन्दीभाषी सत्संग-पे्रमियों को प्रथम बार कथा-रस के तृप्तिदायक आनंद का अनुभव हुआ । इसके पश्चात् काशी में भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार की स्मृति में संचालित अंध विद्यालय के प्रांगण में पूज्य महाराजश्री ने हिन्दी में ‘श्रीमद्वाल्मीकीय-रामायण-कथा’ सुनायी । भागवत के अनन्य अध्येता और ‘शुकदेवावतार’ कहे जाने वाले संत के श्रीमुख से श्रीराम-कथा सुनने का यह दुर्लभ अवसर था । इसके बाद के वर्षो
में उन्होंने काशी में श्रीमद्भागवत-कथा के और भी तीन-चार सत्रों में कथाऽनंद की दिव्यानुभूतियों से भक्तप्राण श्रोताओं को आप्यायित किया ।

उनके भागवत एवं रामायण के प्रवचन प्रथम बार ग्रंथाकार में अहमदाबाद के ‘सद्विचारपरिवार’ द्वारा प्रकाशित किये गए थे, जो ‘भागवत-रहस्य’ और ‘तत्त्वार्थ रामायण’ के नाम से अत्यन्त लोकप्रिय हुए । बाद में श्रीकृष्ण-जन्मस्थान मथुरा, राधा प्रैस वृन्दावन सहित दिल्ली व काशी के कई प्रकाशकों ने भी इन अनुवादित ग्रंथों को प्रकाशित किया । उक्त दोनों ग्रंथ गुजरातीप्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद करके प्रस्तुत किये गए थे । अनुवाद की प्रक्रिया में शब्द के मूल-भाव प्रतिध्वनित करने वाला सटीक शब्द अन्य भाषा में मिल पाना कभी-कभी बड़ा कठिन हो जाता है और कभी-कभी अनुवादक की अपनी ‘समझ’ भी वाक्यों की भावोत्पादकता को छिन्नविच्छिन्न कर देती है । यद्यपि ये सब मामूली प्रक्रियाएँ हैं, किन्तु इनका प्रभाव कथा-रस को सहज नहीं रहने देता । कुछ सम्पादकों ने तो पूज्य महाराजश्री की सरल-स्वाभाविक भाषा-शैली के बीच में अपनी निजी विद्वत्ता का पुट देते हुए भागवत के श्लोकों के उद्धरणों का हिन्दी काव्यानुवाद भी उक्त ग्रंथों के परावर्ती संस्करणों में जोड़ दिया । इससे कथा-शैली की मौलिकता में विक्षेप उत्पन्न हुआ । स्वाभाविक है– जब किसी एक व्यक्ति के कहे हुए वचन किसी दूसरे, फिर तीसरे और चौथे व्यक्ति के द्वारा अभिव्यक्त किये जाते हैं, तो उन वचनों का मूल स्वरूप क्रमश: परिवर्तित होता चला जाता है ।

प्रस्तुत ग्रंथ में हमारा यह अति सतर्वâ प्रयास रहा है कि संत-वाणी को ज्यों-का-त्यों अविकल रूप से लिपिबद्ध किया जाय । यहाँ तक कि व्याकरण और वर्तनी की शुद्धता को दरकिनार करते हुए उसे यथावत् उच्चारित शब्दों में ही प्रस्तुत किया है । कई जगह अपने सहज अभ्यास के चलते पूज्य महाराजश्री हिन्दी के बीच में गुजराती-मराठी के शब्दों का प्रयोग कर बैठते थे, हमने उन शब्दों को यथावत् उसी उच्चारण के साथ लिखा है, किन्तु हिन्दीभाषी पाठकों की सुविधा के लिए बीच-बीच में उन शब्दों के हिन्दी-अर्थ कोष्ठक में स्पष्ट भी कर दिये हैं । कथा-प्रवाह और उसकी हृदयस्पर्शी प्रभावोत्पादकता को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए हिन्दीलिप्यान्तर में विराम-चिन्हों व सामासिक-चिन्हों का यथोचित प्रयोग अत्यन्त सावधानी से किया गया है । कथा के बीच में कई प्रसंगों में पूज्य महाराजश्री भाव-विह्वल हो उठते थे, वाणी अवरुद्ध-सी होने लगती, वंâठ गद्गद् हो उठता– ऐसे प्रंसगों के लिप्यान्तर में भी हमने अति सावधानी बरती है । इसके साथ ही कथा-प्रसंगों के परिच्छेदों-अध्यायों को सार्थक शीर्षक देते हुए उन्हें क्रमानुसार व्यवस्थित करके अध्यवसायी पाठकों के लिए सुगम बनाने का प्रयास भी किया है।

इतना सब प्रयास और परिश्रम केवल इसलिए किया गया है कि इस ‘भागवत-नवनीत’ ग्रंथ को पढ़ते समय पाठकों को ‘शुकदेवावतार पूज्य श्रीडोंगरेजी महाराज’ की कथा का दिव्य आनंद ठीक वैसा ही अनुभव हो, जैसा उनके कथा-सत्रों में होता था । इसे हम उनकी कथा का जीवंत (Live) प्रस्तुतीकरण भी कह सकते हैं । जिन कथा-पे्रमियों को पूज्य महाराजश्री के कथा-सत्रों में उपस्थित रहने का सौभाग्य मिला होगा– उन्हें इस ग्रंथ के वाचन और अध्ययन के दौरान संत-भगवान की प्रत्यक्ष उपस्थिति अनुभव हो, तो कोई आश्चर्य न होगा । क्योंकि इस ग्रंथ के लिप्यांकन की अवधि में यह लेखक स्वयं उनकी उपस्थिति का सतत् अनुभव करता रहा है । 

पूज्य ‘बापजी’ (गुजराती भक्त उन्हें प्राय: इसी सम्बोधन से स्मरण करते थे) अपनी अमृतवर्षिणी वाणी से अगणित जीवों को कल्याण-पथ पर प्रेरित कर गये । अब उनकी पार्थिव देह भले ही इस धरा-धाम पर विद्यमान नहीं है, किन्तु उनका वाणी-विग्रह इस ‘भागवत-नवनीत’ ग्रंथ के रूप में चिरकाल तक भक्तों-साधकों और सत्संगियों को कथाऽनंद प्रदान करता रहेगा– ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है ।

–संपादक

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