आओ, हमें लूटो !


आओहमें लूटो !

मथुरा और इसके परिसर-परिकर में बसे ब्रजवासियों और ब्रज-प्रवासियों की नियति लुटने और लूटने की रही है। अनादिकाल से यह विडंबना ब्रजवासी झेलते रहे हैं। मथुरा-मण्डल की पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि ब्रज की धरा लुटने-लुटाने और लूटने-खसूटने की बड़ी मुफीद जगह है। पौराणिक-प्रसंगों में इस भूमि  की लूट-खसोट आर्यों और अनार्यों के बीच होती रही। दैत्य-संस्कृति के प्रतिनिधि मधु ने अपने बाहुबल से इस जंगल पर अपना आधिपत्य कायम किया था। बेशकमधु एक न्यायप्रिय और प्रजापालक शासक थाकिन्तु उसके उत्तराधिकारी कपूत लवणासुर ने दैत्य-भाव का प्रचंड प्रदर्शन करते हुएयहाँ की प्रजा को बेरहमी और क्रूरता से लूटना और सताना प्रारंभ किया। यहाँ तक कि मथुरा (तत्कालीन मधुवन) में तपश्चर्या कर रहे ब्राह्मण-ऋषियों की गुहार पर अयोध्या के तत्कालीन आर्य-नरेश श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने लवणासुर का वध करके मधुवन-वासियों को लवणासुर के आतंक से मुक्त कराया। किन्तुशत्रुघ्न भी इस भूमि की रक्षा बारह वर्ष से अधिक न कर सके।
पौराणिक-प्रकरणों में वर्णित है कि कृष्ण-कालीन मथुरा-मंडल (ब्रज) में कंस की लूट-खसोट से सभी प्रजा आतंकित थी। तब इस लूट-खसोट को समाप्त करने के लिए श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। कहते हैं- लोहे को लोहा ही काटता है शायद इसीलिए कंस का काम-तमाम करने से पहले श्रीकृष्ण ने गोकुल-वृन्दावन और गोवर्धन में दूधदहीमक्खन और स्त्रियों के कपड े लूटने-चुराने का भरपूर रिहर्सल कर लिया था-
लूट-लूट दधि-माखन खायौ।
ब्रज गोपिन कौ चीर चुरायौ॥
चोरी और लूट में श्रीकृष्ण ने तो पिछले सारे रिकार्ड ही तोड़ दिये थे-
ब्रजे बसन्त नवनीत चौरंब्रजांगनां च दुकूल चौरं।
अनेक जन्मार्जित पाप चौरंचौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि॥
कदाचित्‌उस काल में यदि 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्‌सजैसा कोई प्रकाशन हो रहा होता,तो निश्चय ही श्रीकृष्ण का नाम उसमें दर्ज मिलता।
ब्रज बालाएँ तो श्रीकृष्ण की 'लूटका सर्वाधिक शिकार हुईं। वे बेचारी लगभग प्रतिदिन लुटतीं और चीखती-चिल्लातीं रहीं-
दही मैरो लूट लियौ री दगरे में।
मथुरा   ते   तनक   परे  में॥
लेकिनश्रीकृष्ण तो बड े बाप के बेटे थे। नन्दबाबा की नौ लाख गायों के 'डेयरी-उद्योगके अकेले वारिस! उनके ग्वाल-बालों के गिरोह की लूट-पाट अनवरत जारी रही। अन्ततः यह लुटेरा गोकुल से मथुरा जाते-जाते भी गोकुल-वृन्दावन वासियों के दिलों को भी लूट ले गया।
                ब्रजवासियों के लुटने का सिलसिला अनन्त है। कंस-मामा की कमाई को लूटकर जनता को लुटा देने के बाद श्रीकृष्ण को जरासंध और कालयवन जैसे लुटेरे हमलावरों से लोहा लेना पड ा। सभी जानते हैं कि युद्ध-काल में सेनाएँ भारी लूट-पाट मचाती हैं। सही बात तो यह है कि युद्ध होते ही इसलिए हैं कि किसी का पराभव कर उसके राज्य को लूटना है। अन्ततः जरासंध के अठारह आक्रमणों से जर्जर और लुटी-पिटी मथुरा में जब कोई सार न रहातो श्रीकृष्ण ने समुद्र में 'स्विस बैंककी मजबूत तिजोरियों की तरह द्वारकापुरी का निर्माण करवायाजिसमें वे स्वयं और उनके वंशज देश भर के राजाओं से युद्ध करके राजघरानों की सम्पत्ति और राजकन्याओं को लूट-लूट कर लाते रहे और सुरक्षित रखते रहे। द्वारका में बाहरी लूट की सम्पदा तो आती ही थीआतंरिक लूट की वारदातें भी होती रहती थीं। स्यमन्तक-मणि की कथा इसका प्रमाण है।
      द्वारका के एक नागरिक सत्याजित्‌ के पास प्रतिदिन ९६ ग्राम सोने का उत्पादन करने वाली स्यमन्तक-मणि को देखकर श्रीकृष्ण ने उसे राजा के खजाने में जमा करवाने की सलाह क्या दे डाली कि सत्याजित्‌ इसे 'डॉन का रंगदारी टैक्समान बैठा। आश्चर्य तो यह है कि उस समय द्वारका में मानव ही नहींअपितु पशु भी लूट-विद्या में बड़े निष्णात थे। सत्राजित्‌ के भाई से वह मणि एक सिंह ने लूटी और वह अपनी गुफा तक वापस पहुँचता कि उससे पहले ही एक रीछ ने उसे सिंह से भी लूट लिया। बाद में श्रीकृष्ण के प्रभुत्व के सामने उस रीछ (जाम्बवन्त) को भी आत्मसमर्पण करना पड ा और स्यमन्तक-मणि के साथ कन्यादान भी करना पड ा।
प्रभास क्षेत्र से लौटते समय ब्रज-गोपियों की रक्षा करने में धनुर्धारी अर्जुन भी असमर्थ हो गया थाजब भीलों ने ब्रजगोपियों को लूटा और फरार हो गये।
समय-समय की बात हैसमय बडा बलवान।
भीलन लूटीं गोपियाँवही अर्जुनवही बान॥
कहावत है कि जरजोरू और जमीन तो जबर (बलवान) की ही होती हैं। दुर्योधन और दुःशासन ने लूट-कर्म की पराकाष्ठा पर पहुँचकर यदि द्रोपदी की इज्जत लूटने का प्रयास न किया होता तो महाभारत का युद्ध कदापि न होता। और महाभारत के युद्ध में भी कितनों ने अपने प्राण लुटायेकितनों के अरमान लुटे और कितनों का सामान लुटा- इसका लेखा-जोखा जुटाने में पौराणिकों और इतिहासकारों के भी छक्के छूट जाते हैं।
महाभारत-काल के बाद लगभग एक सौ वर्ष तक मथुरा वीरान पड़ी रही। उस वीरानगी में भी यहाँ के खतरनाक जंगल कोलभीलकिरात आदि लुटेरों का अभयारण्य बने रहे। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाम ने लगभग एक शताब्दी के बाद जब मथुरा को फिर से बसाया तो इसकी सुरक्षा के लिए चारों दिशाओं में फौजी छावनियाँ बनानी पडींजो आज भी केशवदेव,बलदेवहरदेव तथा गोविन्ददेव के अवशेषों के रूप में विद्यमान हैं।
द्वापरयुग से कलियुग तक की संक्रमण-प्रक्रिया में मथुरा आश्चर्यजनक रूप से लूट-मुक्त रहीं। किन्तु, 'कलियुगे प्रथम चरणेमें यह लूट-संस्कृति फिर-से प्रचंड हो उठी और शुंग-काल से लेकर मुगल-काल और फिर ब्रिटिश-शासन से आज तक इस भूमि पर लूट की प्रतिस्पर्धा दिन-दूनी और रात चौगुनी बढ ती ही रही है। इसका विहंगावलोकन हम इस निबंध की दूसरी कडी में करेंगे।

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