विषय-प्रवेश


विषय-प्रवेश


परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने से मानव-जन्म सफल होता है । मानव अपनी शक्ति और बुद्धि का उपयोग भगवान के लिए करे, तो मानव को मरने से पूर्व ही भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन हो सकता है । मानव-शरीर की यह विशेषता है कि भोग और भगवान दोनों ही इस शरीर में मिलते हैं । मानवेतर सभी प्राणियों को केवल भोग मिलता है, भगवान का दर्शन नहीं होता ।

सुख भोगने से दुःख का अंत नहीं होता । राजा हो या रंक, या स्वर्ग का देव ही क्यों न हो– बहुत सुख भोगने पर भी उसको शान्ति नहीं मिलती । श्रीकृष्णदर्शन से दुःख की समाप्ति होती है । जब तक मानव आत्मस्वरूप में ही शांतिपूर्वक भगवान का दर्शन नहीं करता, तब तक दुःख का अंत नहीं होता । इसलिए श्रीकृष्ण-दर्शन की इच्छा रखो । भगवान का दर्शन करने की इच्छा होते ही पाप छूटने लगता है । जबकि संसार का कोई भी भोग भोगने की इच्छा होते ही पाप का आरम्भ होता है ।

श्रीकृष्ण-दर्शन की इच्छा रखकर जो साधन करता है, उसको सभी साधु-संत आशीर्वाद देते हैं । किन्तु, जो भगवान को भूलकर माया में पँâस जाता है, उसको कोई संत आशीर्वाद नहीं देते । आप भगवान का दर्शन करने की इच्छा रखकर साधन करो– इससे बहुत शांति मिलेगी । श्रीराम-कृष्ण-दर्शन के लिए जो प्रयत्न नहीं करता है, उसको अंतकाल में बहुत दुःख होता है । भगवान का दर्शन करने की इच्छा– शुभेच्छा है । शुभेच्छा जीवन और मरण को सुधारती है । अशुभ इच्छा जीवन को बिगाड़ती है, और मरण को भी बिगाड़ती है । शुभेच्छा को भगवान सफल करते हैं । ‘शुभ’ शब्द का अर्थ है– भगवान । भगवान के दर्शन की जिसको इच्छा है, भगवान के चरणों में जाने की जिसकी भावना है– उसकी वह शुभेच्छा सफल होती है । 

कदाचित्, कोई साधारण मानव ऐसी इच्छा रखे कि इस जनम में मैं करोड़पति बन जाऊँ, तो यह अशक्य है । वह बहुत मेहनत करे तो भी करोड़पति नहीं हो सकता । किन्तु, कोई जीव ऐसा संकल्प करे के इस जन्म में ही मुझे श्रीकृष्णदर्श न करना है, मेरे जीवन का लक्ष्य भगवान है– तो उसको इसी जीवन में भोग मिलता है और भगवान भी मिलते हैं । जो परमात्मा के पीछे पड़ता है, उसको भगवान संसार का सभी सुख देते हैं । किन्तु, संसार के लौकिक सुखों को जो बहुत महत्व नहीं देता और सुख में भी सतत् भक्ति करता है, उसी को भगवान मिलते हैं । आज से ही आप ऐसी इच्छा रखो कि मुझे भगवान का दर्शन करना है । आपका जीवन सुधरेगा, आपका मरण भी मंगलमय होगा ।

बहुत से लोगों का ऐसा नियम होता है कि वे मंदिर जाकर भगवान का दर्शन करते हैं– अच्छा है । घर छोड़कर मंदिर में जाना और मंदिर में जाकर भगवान का दर्शन करना योग्य है । किन्तु, मंदिर में जाकर भगवान का दर्शन करना साधारण दर्शन है । साधारण दर्शन से साधारण शान्ति मिलती है । बहुत-से लोग मंदिर में तो भगवान का दर्शन करते हैं, भक्ति करते हैं । किन्तु, मंदिर से बाहर निकलते ही उनकी दृष्टि बिगड़ जाती है । जो मंदिर में भगवान की भक्ति कर रहा था, वह मंदिर से बाहर निकलने पर पाप करने लगता है ।

कभी-कभी मंदिर में भगवान का दर्शन करते हुए कुछ लोगों को क्रोध भी आ जाता है । मंदिर में बहुत भीड़ हो और भीड़ में किसी का धक्का लग जाय तो मानव को बुरा लगता है । वह ऐसा समझता है कि इसने मुझे जानबूझ कर धक्का मारा है । वक्त आने दो, किसी दिन मैं भी इसे ऐसे ही धक्का मारूँगा । मंदिर में भगवान का दर्शन करता हुआ मानव क्रोध भी करता है । मन बिगड़ता है, मन चंचल हो जाता है ।

इससे सिद्ध होता है कि मंदिर में जाकर भगवान का दर्शन करना– ये साधारण दर्शन है । साधारण दर्शन से साधारण शान्ति मिलती है । मंदिर से बाहर निकलने पर जहाँ भी नजर जाये, वहाँ भगवान का ही दर्शन करो । भगवान का दर्शन भावना से होता है । जिसके मन में प्रेम है, जिसके हृदय में भाव है, जिसकी आँख शुद्ध है– उसी को मंदिर में भगवान का दर्शन होता है । जिसके हृदय में प्रेम नहीं है, उसको तो मंदिर में पत्थर की मूर्ति ही दिखती है । ये मूर्ति नहीं है, बैकुण्ठ में विराजमान नारायण ही कृपा करके यहाँ आये हैं । मूर्ति नहीं, मैं तो प्रत्यक्ष
भगवान का दर्शन कर रहा हूँ – ऐसी भावना करने से दर्शन में आनन्द आता है । पत्थर को देखने से क्या आनन्द आ सकता है ? पत्थर की मूर्ति तो बाजार में– दुकान में है । वहाँ उसे देखने पर आनन्द नहीं आता । किन्तु, मंदिर में दर्शन करने पर भावपूर्ण हृदय पिघलने लगता है । कभी लगता है– भगवान आज बहुत प्रसन्न हैं, मेरे प्रभु मुझे देखकर गालों में धीरे-धीरे हँस रहे हैं । पत्थर की मूर्ति कभी प्रसन्न नहीं होती । पत्थर की मूर्ति कभी नाराज भी नहीं होती । वैष्णवजन मंदिर में परमात्मा का दर्शन करते हैं– ये साक्षात् नारायण हैं !

लोखण (लोहे) को अग्नि में तपाने से वह लोखण नहीं रहता, अग्नि हो जाता है । लोहे में जिस प्रकार अग्नि का प्रवेश होता है, उसी प्रकार मूर्ति में परमात्मा का प्रवेश होता है । मंदिर में भी भावना करनी पड़ती है । मंदिर के बाहर निकलने के बाद जो कुछ दिखाई देता है, उसमें भी भगवान की भावना क्यों नहीं करते ? आँख को जो कुछ दिखता है, वह सब भगवान ही है– ऐसी भावना करो । सृष्टि को सुधारना अशक्य है, अपनी दृष्टि को सुधारो । इस संसार को कोई सुधार सका नहीं। जिसने अपनी दृष्टि को सुधार लिया है, उसको जगत में बिगड़ा हुआ कुछ दिखता ही नहीं । तुलसीदास महाराज को जगत में कोई स्त्री दिखती नहीं, कोई पुरुष दिखता नहीं– 
सीय राममय सब जग जानी । करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।।

भक्तों की दृष्टि जहाँ भी जाती है, वहाँ उनको भगवान का ही दर्शन होता है । भावना से भगवान दिखते हैं । किसी की देह को काहे को देखते हो ? जो देह को देखता है, उसको देव का दर्शन कभी नही होता । देह तो मल-मूत्र से भरा हुआ है । जो देह को सुन्दर समझता है, वह ईश्वर से बहुत दूर है । देह में जो सौन्दर्य है, वह देव का सौन्दर्य है । देह में देव विराजमान है, इसीलिए देह में सौन्दर्य भासता है । देह में से जब आत्मदेव बाहर निकलते हैं तब देह को कोई घर में रखने को भी तैयार नहीं होता । कई लोग तो उतावली करते भी ऩजर आते हैं– जल्दी बाहर निकालो, नहीं तो वजन बढ़ जायेगा ।

मानव-शरीर में भगवान न होवें, तो मानव बोल नहीं सकता । बोलने की शक्ति भगवान देते हैं । आँख को देखने की शक्ति भगवान देते हैं । कान को सुनने की शक्ति भगवान देते हैं । भगवान शक्ति न दें, तो मानव जिह्वा रहते हुए भी गूंगा ही बना रहेगा । आँख रहने पर भी अन्धा और कान रहते हुए भी बहरा बना रहेगा । इससे सिद्ध होता है कि देह में जो सौन्दर्य और शक्ति है, वह देव के कारण ही है । अत: किसी स्त्री को, किसी पुरुष को स्त्री या पुरुष भाव से नहीं, बल्कि भगवद् भाव से देखने की आदत डालो । जगत के सभी स्त्री-पुरुषों में भगवान हैं । देह सभी के भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु देव सभी में एक है । प्रत्येक में भगवान की भावना करो ।

सौ रुपये का नोट देखने में मह़ज एक कागज का टुकड़ा ही होता है, किन्तु बुद्धि कहती है कि वह कागज नहीं, रुपया है । आप उसे सँभाल कर रखते हैं । आँख को नोट में एक पैसा भी दिखायी नहीं देता, किन्तु बुद्धि कहती है कि वह कागज नहीं, धन है । इसी प्रकार प्रत्येक स्त्री-पुरुष में बुद्धि से, भावना से भगवान का दर्शन करो । आपको बहुत शान्ति मिलेगी । मानव यदि मानव में भगवान का दर्शन करे तो मन बिगड़े नहीं । आज जगत में दुःख बहुत बढ़ गया है । इसका यही कारण है कि मन बहुत बिगड़ गया है । मन बिगड़ने से दुःख बढ़ता है 

सभी को भगवद्-भाव से देखो । जगत के स्त्री-पुरुषों में जो भगवान का दर्शन करता है, उसको बहुत शान्ति मिलती है । सनातन धर्म तो कहता है– पशुपक्षियों में भी भगवान का दर्शन करो । मार्ग में फूल पड़ा हो तो आप यकायक उस फूल पर पाँव रखकर आगे नहीं जा सकते । आपको लगता है कि फूल पर पाँव रखने से पाप लगेगा। फूल में भगवान का दर्शन कहाँ होता है ? किन्तु, बुद्धि कहती है कि पूâल में जो सुगंध है, वह भगवान का स्वरूप है। इसीलिए मानव फूल के ऊपर एकाएक पाँव रखकर नहीं जाता, उसे संकोच होता है– मेरे को पाप लगेगा । फूल में सुगंध-रूप से भगवान ही विराजमान हैं ।

पृथ्वी परमात्मा की ही शक्ति है । प्रातःकाल में वैष्णव पृथ्वी माता को वंदन करके फिर अपना पाँव पृथ्वी के ऊपर रखता है । पृथ्वी सभी की माँ है । पृथ्वी के पति परमात्मा नारायण हैं । पृथ्वी में गंधरूप से भगवान की सत्ता है । पानी में जो मिठास है, जो शीतलता है– वह प्रभु का स्वरूप है । वेदों में वर्णन है– ‘रसो वै स:’– अति मधुर रस ही भगवान हैं । पानी में परमात्मा की सत्ता है । पानी का अनादर मत करो । पानी का दुरुपयोग करना बड़ा पाप है । पानी में भगवान हैं । पृथ्वी में परमात्मा हैं, अग्नि में परमात्मा हैं, वायु में भगवान हैं । जो भगवान वैकुण्ठ में हैं, वही कृपा करके मन्दिर में आये हैं । वही भगवान जगत के स्त्री-पुरुषों में विराजमान हैं, वही भगवान सूक्ष्मरूप से पशु-पक्षियों में भी हैं ।

राजा राजमहल में रहता है, किन्तु राजा की सत्ता उसके राज्य के अणुपरमाणु में है । इसी प्रकार भगवान सभी में व्याप्त हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश में भी भगवान हैं । जो सभी में भावना से भगवान का दर्शन करता है और दर्शन करते हुए अपना देह-भान भूल जाता है, तो उसको आत्मस्वरूप में भगवान का दर्शन होता है ।

स्त्रीत्व और पुरुषत्व देह के भाव हैं । मनुष्य जब देह-भाव को भूल जाता है, तब उसे देव का दर्शन होता है । भगवान की भक्ति ऐसी करो कि आपको यह याद आवे ही नहीं कि में स्त्री हूँ या पुरुष । देह-भाव दुःख देने वाला है । गोपियाँ सर्व में श्रीकृष्ण का दर्शन करती हुई, श्रीकृष्ण का स्मरण करती हुई अपने देह-भान को भूल जाती थीं–

देहाभिमाने गलिते विज्ञातेप्रत्यगात्मनि ।
यत्र यत्र मनोयाति तत्र तत्र समाधय: ।।

गोपियों को देहभाव नहीं है । उनको याद नहीं आता कि किसी पुरुष के साथ उसका लग्न हुआ है– वे किसी की पत्नी हैं । गोपियों को याद नहीं आता कि वे किसी की बहन हैं । गोपियों को स्त्रीत्व का भी स्मरण नहीं हैं । तब अपने अन्दर उन्हे श्रीकृष्ण का दर्शन होता है ।

भागवत दर्शन-शास्त्र है । भगवान का दर्शन करने के लिए वेदों में, उपनिषदों में, पुराणों में अनेक साधन बताये गये हैं– सभी अच्छे हैं । किन्तु, भागवत में एक विशिष्ट मार्ग-दर्शन है । वेद भगवान कहते हैं कि आपको परमात्मा का दर्शन करना है, तो सभी प्रवृत्तियाँ छोड़ दो । वेदान्त का सिद्धान्त है– सब कुछ छोड़ दो । परिपूर्ण वैराग्य होवे, त्याग होवे– तब भगवान का दर्शन होता है । किन्तु, ‘सब कुछ छोड़ दो’– ऐसा बोलने वाला भी ‘छोड़ता’ नहीं है । छोड़ना बड़ा कठिन है ।

मानव तो एक साधारण वस्तु को भी छोड़ता नहीं है । बहुत-से लोग कथा में आते हैं, तब पान-सुपाड़ी खाकर आते हैं । मुख में पान होवे, धीरे-धीरे उसका रस निकले, तो मजा आता है । कलियुग का मानव पान-तम्बावूâ जैसी साधारण वस्तु को भी छोड़ नहीं सकता । उसको कोई कहे कि ‘काम’ का त्याग करो, क्रोध छोड़ो, लोभ छोड़ो– तो वह वैâसे छोड़ेगा ?

वेदान्त कहता है कि घर छोड़ना ही पड़ेगा । पूर्ण निवृत्ति लेकर ध्यान करें, तब भगवान का दर्शन होता है– गृहं सर्वात्मन: त्याज्यं । अरे, जो लोग घर छोड़ देते हैं, उनको भी दूसरा घर बनाने की इच्छा होती है । एक घर की ममता छोड़ दी और दूसरे घर में पँâस गए । कितने ही लोग घर छोड़कर गंगा-किनारे जाते हैं, किन्तु, वहाँ भी ‘घर’ बना लेते हैं । भगवान ने जो घर दिया था, वह क्या बुरा था ? उसे छोड़ने की क्या जरूरत थी ? घर में रहना है, घर छोड़ने की जरूरत नहीं है । क्योंकि घर छोड़ने पर भी जीव दूसरा घर बनाता है । भागवत में मार्ग-दर्शन किया है– ममता भगवान में रक्खो, घर में ममता रखना नहीं । मानव समझता है कि घर मेरा है, मेरे सुख के लिए है– तभी बंधन होता है । जिस घर को आप मानते हैं कि यह मेरा घर है, उस घर में आप अपने माता-पिता का लग्न होने के बाद आये हो । आपके माता-पिता का लग्न नहीं हुआ था, तब आप किस घर में रहते थे ? तब आपका घर कौन-सा था ? भगवान के लिए घर छोड़ना ही चाहिए– ऐसा नहीं है । घर में भक्ति करें, तो घर में भी भगवान का दर्शन होता है । मीराबाई राजमहल में रहती थी । राजमहल में प्रेम से गोपालजी का कीर्तन करती थी। बड़े-बड़े साधु-संन्यासी-महात्मा मीराबाई का दर्शन करने राजमहल में जाते थे ।

इसलिए घर की ममता छोड़कर घर में रहो । आप सभी लोग घर छोड़ दो, तो मैं कथा किसके आगे कहूँगा ? आप घर में रहते हो– अच्छा करते हो । घर में रहना चाहिए, घर छोड़ना नहीं चाहिए । कदाचित्, घर में झगड़ा होवे– कलह होवे, तो सहन करो । घर छोड़ना नहीं चाहिए । आवेश में जो घर छोड़ता है, उसको घर के वास्तुदेव शाप देते हैं । क्रोध में जो घर छोड़ता है, आवेश में जो घर छोड़ता है– परिणाम में वह दुःखी होता है । इसलिए घर में विवेक से रहो । विवेक भागवत की कथा सुनने से मिलेगा । भागवत में ऐसा दिव्य मार्ग-दर्शन है कि मानव घर में सावधान रहकर भक्ति करे, तो घर में ही भगवान का दर्शन होता है । घर में सावधान रहने की जरूरत है । जो सावधान रहता है, उसी को साधु कहते हैं । जो गाफिल रहता है– वह संसारी है । जो घर छोड़कर भी गा़फिल रहता है– वह जहाँ भी जावे, संसार ही करता है । सत्संग से विवेक मिलता है । भागवत की कथा मानव को निर्भय बनाती है ।

परीक्षित राजा ने कहा– ‘महाराज ! आपकी ऐसी कृपा हुई है कि मैं अपने अन्दर नारायण का दर्शन करता हूँ, बाहर नारायण का दर्शन करता हूँ, दाहिने बाजू में नारायण का दर्शन करता हूँ, बायें बाजू में नारायण का दर्शन करता हूँ । मेरे को ऐसा लगता है कि तक्षक नाग में भी नारायण हैं । तक्षक नाग के साथ मेरा बैर नहीं है । तक्षक नाग भले ही मेरे शरीर को दंश करे, तक्षक के प्रति मेरे मन में कुभाव नहीं है । आपने ऐसी कृपा की है कि अब मैं तक्षक नाग में भी नारायण का दर्शन करता हूँ । मेरे को तक्षक नाग का भय नहीं है ।’

जो अपने स्वरूप को बराबर समझता है, जो अन्दर-बाहर सभी जगह भगवान का दर्शन करता है, उसको भय नहीं लगता । इसीलिए भगवान के भक्त निर्भय रहते हैं । जिसको भय लगता है– समझना, उसकी भक्ति कच्ची है, बराबर नहीं है । आप जिस देव की पूजा करते हो, जिस देव के नाम का आप जप करते हो– वह देव आपके साथ में है– भले ही आपको उसका दर्शन न होवे । भगवान का तेज सहन करने की मानव में शक्ति नहीं है, इसीलिए भगवान अपने स्वरूप को छिपाते हैं और गुप्त रूप से साथ में रहते हैं । आप सब भगवान के अंश हो । अपने स्वरूप को कभी भूलना नहीं– मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे साथ में हैं । भागवत की कथा भगवान का दर्शन की आँख (दृष्टि) देती है । भागवत की कथा परम प्रेम का दान करती है । भागवत की कथा मानव को निःसंदेह बनाती है । आपके मन में कोई शंका होवे, वह किसी से पूछने की जरूरत नहीं है । शांति से कथा सुनो– कथा में आपकी शंका का समाधान किसी-न-किसी दिन मिल ही जाएगा । कथा में आपको ऐसा आभास होगा कि आज की कथा मेरे लिए ही हुई थी ।

जो लोग बहुत प्रश्न पूछते हैं, वे प्राय: कथा नहीं सुनते । जो बहुत प्रेम से प्रभु की पूजा करता है, भगवान का नाम-जप करता है– उसके हृदय में भगवान आते हैं । भगवान उसको समझा देते हैं । भगवान जैसा समझाते हैं, वैसा समझाने वाला इस संसार में दूसरा कोई हुआ ही नहीं है । जो प्रेम से पूजा नहीं करता, वही प्रश्न पूछता है । जो प्रेम से भगवान के नाम जप नहीं करता है, वही प्रश्न पूछता है । यह कथा व्यास महर्षि ने ऐसी कही है...। संसार में व्यास महर्षि के समान महान बुद्धिमान कोई हुआ नहीं है, और होने वाला भी नहीं है– नमोऽस्तु ते व्यास विशाल बुद्धे ! मानव के मन में वैâसी शंकाएँ आती हैं– व्यास-नारायण यह अच्छी तरह से जानते हैं । वृद्धावस्था में जब ज्ञान और बुद्धि का परिपूर्ण परिपाक हुआ, तब उन्होंने इस भागवत-शास्त्र की रचना की । व्यास महर्षि ने इसमें कोई विषय छोड़ा ही नहीं है ।

भागवत की समाप्ति में शुकदेवजी महाराज ने परीक्षित राजा को कहा था– ‘तेरे मन में कोई शंका हो, तो मेरे को प्रश्न करो । मैं बैठा हूँ तब तक तक्षक नाग नहीं आवेगा । कदाचित् आवे, तो मेरी ऩजर पड़ने से उसका विष अमृत हो जावेगा । मैं विष को अमृत बना सकता हूँ, ऐसी मेरी आँख में शक्ति है ।’

परीक्षित राजा ने कहा– ‘अब मन में कोई शंका नहीं है । आपने बहुत कृपा की।’ भगवान की कथा मानव को निःसंदेह बनाती है । इस कथा की महिमा को कौन वर्णन कर सकता है ?

No comments:

Post a Comment