होली या हुडदंग ?
रंग, उमंग, हास-परिहास और उल्लास का त्यौहार ‘होली’ अपने नाम से ही पवित्र और आदरास्पद त्यौहार है। सारे मतभेद और मनभेद भुलाकर सबको गले लगाने का यह स्नेह-पर्व काल की कालिमा से कुटेबों और कुरीतियों से आच्छादित हो गया है। अंग्रेजी में भी Holi शब्द पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। ऐसे प्रेम-पगे पर्व का जो भीषण तिरस्कार और अवमानना अब देखने में आती है, वह इस त्यौहार की मूलभावना का सरासर चीरहरण ही है।
टेसू, गुलाब, केसर और वनस्पतियों के प्राकृतिक-सुगन्धित रंगों की पुâहारों की जगह अब वैâमीकल के घातक रंग मारक-गुब्बारों में शरीर को चोट पहुँचाने लगे हैं। अबीर, गुलाल और कुमकुमा की जगह अब तारकोल, पेन्ट्स और कीचड़ ने ले ली है। होली की सुमधुर तानों,चौपाईयों, रसियों और व्यंग्योक्तियों की जगह अब फिल्मी, पूâहड़, द्विअर्थी और वाहियाद-डी.जे. पर चिंघाड़-चिंघाड़ कर गाये जाने वाले अथवा बजने वाले गानों ने ले ली है।
होली का दहन वनों के विनाश के कारण अब नाम-मात्र की रस्म रह गया है। लकड़ियों की जगह गोबर के उपलों ने ले ली है। किन्तु जिस गति से गौवंश का संहार हो रहा है, उसे देखते हुए आने वाली पीढ़ियाँ होलिका-दहन के नाम पर क्या गैस-चूल्हे जलायेंगी ?
परम्पराओं के अधःपतन और संस्कृति में विकृति के विष का जो संचरण हो रहा है, वह होली जैसे पवित्र और स्निग्ध त्यौहार को पूरी तरह से कुरूप कर चुका है। सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोटक प्रसार ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साइबर वल्र्ड में होली मनाती आधुनिक पीढ़ी होली के पारम्परिक मर्म और उसमें निहित संदेश को भला क्या समझ पायेगी?
यह ठीक है कि ‘होली’ के साथ ‘हुड़दंग’ भी हमेशा से जुड़ा रहा है। किन्तु, इस हुड़दंग की भी अपनी सीमाएँ और शालीनता रही है। यद्यपि रीतिकालीन कवियों ने श्रीराधा-कृष्ण की होली-लीलाओं का जो चित्रण किया है, वह कहीं-कहीं मर्यादाओं का अतिक्रमण करता प्रतीत होता है,तथापि उसमें साहित्यिक, गहराई और काव्यालंकार की पराकाष्ठा भी देखी जा सकती है।
शिष्ट हास्य बरसों तक हमारे साहित्य-जगत की धरोहर रहा है। कुछ दशकों पहले तक देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएँ होली के अवसर पर जो उच्च कोटि का साहित्य परोसती थीं, उसकी पाठकों को वर्ष भर प्रतीक्षा रहती थी। किन्तु आज-कल के समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पूरे वर्ष जो अश्लील और पूâहड़ चित्र एवं रचनाएँ परोसते रहते हैं, उससे हर अंक ‘होली–विशेषांक’ ही लगता है। आज जिस अमर्यादित और अश्लील आचरण का होली में व्यवहार होने लगा है, वह हमारी परंपराओं, संस्कृति के लिए लज्जास्पद है। टीवी संस्कृति ने यूँ भी पारिवारिक मूल्यों को छिन्न-भिन्न किया है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र के निर्माण की अवधारणा अब उलट गयी है और व्यक्ति नितांत अकेला होता जा रहा है। वह एक में भी तनहा और सौ में भी अकेला रह गया है। सम्बन्धों की गरमाहट ठण्डी पड़ती जा रही है। ऐसे में सामाजिक समरसता का बोध कराने वाले इस त्यौहार में अकेलेपन के शिकार व्यक्तियों की भूमिका वैâसे सार्थक हो सकती है?
होली में गालियों का आदान-प्रदान भी इसकी सांस्कृतिक रहस्यमयता को अपने में समेटे हुए है। शास्त्रों में लिखा है कि ढुण्ढा नाम की राक्षसी (होलिका) अश्लील शब्दों के उच्चारण से प्रपुâल्लित होती थी, जिससे उसके अंग-प्रत्यंग से ज्वालाएँ प्रचण्ड होने लगती थांr। प्रहलाद-भक्तों ने इस राक्षसी के शीघ्रातिशीघ्र जल जाने की कामना से अश्लील शब्द उच्चारे थे। इसी के प्रतीक-स्वरूप अश्लील शब्दों से युक्त गालियों का आदान-प्रदान सम्भवत: इस पर्व से जुड़ गया होगा। किन्तु हमारे पूर्वजों ने इन अश्लील और भद्दे कहे जाने वाले शब्दों को इस तरह से प्रयुक्त किया कि उनकी हेयता और अश्लीलता चमत्कारपूर्ण अर्थों में ढल गयी। भारतीय संस्कृति में गायी हुई गाली का बुरा नहीं माना जाता। आज भी हिन्दू परिवारों में शादी-विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा गालियाँ गाये जाने का प्रचलन है। होली में भी गालियाँ सुमधुर छन्दों, चौपाइयों, रसियों में पिरोकर गायी जाती हैं। इनमें अश्लीलता नहीं, अपितु लालित्य और शृंगार झलकता है।
किन्तु, आजकल होली में मदिरापान कर अनाप-शनाप बेहूदी गालियाँ और कामुक चेष्टाओं का सरेआम प्रदर्शन करना आम बात हो गई है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘गारी’ शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है–
‘‘अमिय गारि, गार्यौ गरल,
गारि कीन्ह करतार।
प्रेम-बैर की जननि जुग,
जानहिं बुध न गँवार।।’’
अर्थात, ईश्वर ने अमृत और विष दोनों के घोल से ‘गाली’ तैयार की है। इसीलिए यह प्रेम और बैर दोनों को पैदा करने वाली है। इस रहस्य को बुद्धिमान ही जानते हैं, गँवार नहीं।
आज के हुड़दंगियों में इस रहस्य को कौन जानता है? हुड़दंग की पराकाष्ठा सड़कों पर ही नहीं,संसद और साहित्य में भी होने लगी है। भारत का यह त्यौहार कभी-कभी लगता है कि अब हर दिन का हो गया है।
हास-परिहास होली की आत्मा है। हँसना आदमी की सेहत के लिए मु़फीद माना गया है। किन्तु, बेवक्त की हँसी अक्सर जहर हो जाया करती है। होली पर हँसी का टॉनिक लेने वाले भारतीय अब पूरे वर्ष टीवी चैनलों पर लाफ्टर कार्यक्रमों की ओवरडोज लेते रहते हैं। नतीजतन हास्य में से लास्य और लालित्य समाप्त हो गया है, और उसमें लम्पटता, धूर्तता और बेहयायी ने प्रवेश कर लिया है। हँसी अब अपना आकर्षण खो चुकी है। हिन्दुस्तानियों की गति इस समय–‘इतने हँसे कि आँख से आँसू निकल पड़े’– जैसी हो गई है।
बकौल गालिब–
पहले आती थी हर बात पै हँसी।
अब किसी बात पर नहीं आती।।
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