माहात्मय


माहात्म्य


अनेक ग्रन्थों में माहात्म्य की कथा आती है । प्रधानत: पद्मपुराणान्तर्गत माहात्म्य की कथा वक्ता कहे– ऐसी व्यासनारायण की आज्ञा है । व्यासनारायण की आज्ञानुसार पद्मपुराणान्तर्गत माहात्म्य की कथा को अब आरम्भ करते हैं–

सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे ।
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम: ।।

कथा के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में वंदन करते हैं । दर्शन के बाद वंदन होता है । जिसको भगवान का दर्शन नहीं होता है, वह किसको वंदन करेगा ? अत: मन से दर्शन करो, भगवान के चरणों में भावपूर्वक वंदन करो । कोई भी कार्य आप आरम्भ करो, तो पहले भगवान के चरणों में वंदन करो ।

जीव में शक्ति अल्प है । जीव की बुद्धि भी अल्प है । अल्प शक्ति होने पर भी यह जीव शक्ति का विनाश बहुत करता है । इससे जीव दुःखी होता है और उसकी हार हो जाती है । किन्तु, जिसको भगवान की शक्ति मिलती है, भगवान
की शक्ति प्राप्त करके जो काम करता है– उसकी कभी हार नहीं होती । इसलिए भावपूर्वक भगवान के चरणों में वंदन करो ।

ऐसा नियम बना लो कि कोई भी काम करने से पहले अपने भगवान का दर्शन करो, उन्हें वंदन करो । बाहर जाना हो, तो भगवान का वंदन करके बाहर जाओ । बहुत-से वैष्णव तो भगवान को ऐसा कहते हैं कि ‘मैं आपका ही काम करने जा रहा हूँ ।’

भक्ति में पैसे की जरूरत है । पैसा केवल भोग का ही साधन नहीं है, पैसा भक्ति का भी साधन है । पैसे के बिना भक्ति नहीं होती । अत: प्रवृत्ति भी परमात्मा के लिए करो । बाहर जाओ, तब भगवान को वंदन करके जाओ । काम करो,  तब भी भगवान को भूलना नहीं । बाहर से जब घर में आओ, तब हाथ-पाँव धोकर, शुद्ध होकर प्रथम भगवान का दर्शन करो और भगवान को वंदन करके कहो– ‘यह दास आपकी सेवा में आया है, आप मेरे मालिक हैं ।’ आप इतना भी करोगे, तो जीवन सुधरेगा ।

कितने ही लोग जब बाहर से घर में आते हैं, तो उनको सर्वप्रथम पत्नी का दर्शन करने की इच्छा होती है । पत्नी न दिखाई पड़े, तो व्याकुल हो जाते हैं । अपने बच्चों से पूछते हैं– ‘तेरी माँ कहाँ गयी है ?’अरे, वह क्या कोई भाग जाने वाली थी ? –आ जाएगी । घर में आकर प्रथम भगवान का दर्शन करो । घर के मालिक भगवान हैं । ‘श्रीकृष्णाय वयं नुम:’– कथा के आरम्भ में वंदन करो । केवल श्रीकृष्ण का ही नहीं, अपितु श्रीराधाजी के साथ विराजमान श्रीकृष्ण को वंदन करो ।

सनातन धर्म में शक्ति के साथ परमात्मा की भक्ति होती है । कितने ही ज्ञानी लोग ‘र्नििवशेष ब्रह्म’ का ध्यान करते हैं– ठीक है । किन्तु, ब्रह्म जब शक्तिविशिष्ट होता है, तब दया आती है । शक्ति-विशिष्ट ब्रह्म की पूजा होती है । संत लोग तो ऐसा कहते हैं– ‘श्रीराधे के बिना कृष्ण आधे हैं ।’

श्रीसीताजी रावण की लंका में विराजमान हैं । रामचन्द्रजी को सीताजी का वियोग हुआ है । सीता-वियोगी राम की कोई पूजा नहीं करता । राम जब रावण को मारते हैं, श्रीसीताजी के साथ स्वर्ण-सिंहासन पर विराजते हैं– ब्रह्म जब शक्ति-विशिष्ट होता है, तभी उसकी पूजा होती है । सनातन धर्म में शक्ति-विशिष्ट परमात्मा की पूजा है ।

जगत के आधार श्रीकृष्ण हैं । श्रीकृष्ण की आधार श्रीराधा हैं । जगत को आनन्द देने वाले श्रीकृष्ण हैं । जीव जब मन से श्रीकृष्ण का स्पर्श करता है, तब आनन्द मिलता है । आनन्द ही ‘श्रीकृष्ण’ है । जीव को संसार में सुख मिलता है, आनन्द नहीं मिलता है । आनन्द तो, जीव जब परमात्मा को स्पर्श करता है, तब मिलता है । आनन्द देने वाले श्रीकृष्ण हैं । जगत को आनन्द श्रीकृष्ण देते हैं और श्रीकृष्ण को आनन्द देने वाली श्रीराधाजी हैं ।

भागवत में ऐसा वर्णन आया है कि श्रीकृष्ण को कभी-कभी क्रोध आता है । भगवान क्रोध करते हैं । किन्तु, श्रीराधाजी को जीवन में कभी क्रोध आया ही नहीं । क्रोध क्या होता है– यह श्रीराधाजी जानती ही नहीं हैं । वह तो दया की मूर्ति हैं– प्रेम की मूर्ति हैं । उन्हें सभी पर दया आती है ।

भगवान दयालु हैं– यह बात सत्य है । भगवान् कभी-कभी निष्ठुर भी हो जाते हैं । भगवान कभी-कभी क्रोध करते हैं । भगवान सजा भी करते हैं । भगवान कब सजा करते हैं ?

भगवान कृपा करके जीव को धन देते हैं । जीव को घर में अनुकूलता कर देते हैं, ताकि अनुकूल परिस्थितियों में वह भगवान की ज्यादा भक्ति करे । ज्यादा भक्ति करने के लिए, ज्यादा परोपकार करने के लिए भगवान जीव को अनुकूलता कर देते हैं । किन्तु, यह जीव ऐसा दुष्ट है कि सब प्रकार की अनुकूलता मिलने पर भी वह ज्यादा भक्ति नहीं करता है– वह ज्यादा सुख भोगता है । अतिश:भक्ति करने के लिए भगवान अनुवूâलता कर देते हैं । अनुवूâल परिस्थिति में मर्यादा छोड़कर जीव जब अति सुख भोगता है, तब भगवान को क्रोध आता है– ‘अब दया नहीं, अब सजा है । अब मैं इसको सजा करूँगा ।’

भगवान सजा भी करते हैं । भगवान को क्रोध आता है । भगवान क्रोध करके जब सजा करते हैं, तब श्रीराधाजी भगवान को समझाती हैं– ‘क्रोध मत करो ।’ भगवान आवेश में बोलते हैं– ‘ये जीव दुष्ट है । आज तक मैंने बहुत दया की, यह दया करने लायक नहीं है । अब मैं इसको सजा करूँगा ।’ श्रीराधाजी प्रेम से समझाती हैं– ‘जीव तो लायक नहीं है; आप तो लायक हो ! वह आपका ही बालक है, आपका ही अंश है । जीव दुष्ट है, आप दयालु हो । जीव नालायक है, आप लायक हो । मेरे को दया आती है– दया करो, सजा न करो । आप उसको सजा करोगे, तो वह बहुत दुःखी होगा । वह कहाँ जायेगा ? अब वह सुधरेगा, अब पाप नहीं करेगा ।’श्री राधाजी की कृपा बिना जीव भगवान के चरणों में नहीं जा सकता । श्रीराधाजी उसके लिए सिफारिश करती है ।

संतों का एक अनुभव है– कभी-कभी साधु-संतों को भी माया सताती है । माया बंगला में रहने वालों को ही त्रास देती है– ऐसा नहीं है । वन में रहने वाले तपस्वी संतों को भी माया त्रास देने जाती है । माया किसी को छोड़ती नहीं है । माया सभी को मारती है । माया जब बहुत त्रास देती है, तब संत– ‘श्रीराधे, श्रीराधे, श्रीराधे, श्रीराधे... मेरा मन बिगड़ गया है, मेरा मन मानता नहीं है, मैं शरण में आया हूँ ।’–ऐसा कहते हैं ।

मन प्रेम से ‘श्रीराधे, श्रीराधे, श्रीराधे, श्रीराधे’– कीर्तन करता हुआ जब तन्मय होता है, तब श्रीराधाजी दौड़ती हुई आती हैं । वह दया की मूर्ति हैं । ‘दया’ ही ‘श्रीराधा’ है । भगवान की आह्लादिक शक्ति ही ‘श्रीराधा’ है– ‘श्रयते सर्वात्मना श्रीकृष्ण इति–श्री:। श्रीकृष्णेन श्रीयते सेव्यते इति वा– श्री: ।’

श्रीराधाजी जगन्माता हैं । साधारण माता को भी दया आती है । केसा भी अपराधी पुत्र होवे– वह बारह बजे घर में आवे और माँ के सन्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो जावे, उसकी आँखों में दो आँसू आ जायें– तो माँ सब कुछ भूल जाती है । फिर माँ को पुत्र का कोई दोष नहीं दिखता है । एक साधारण माता में भी ऐसी दया है । श्रीराधाजी तो जगन्माता हैं । श्रीराधाजी आदिशक्ति हैं । सभी शक्तियाँ श्रीराधाजी में से ही निकली हैं ।

माया भी भगवान की शक्ति है । माया जब सताती है...। माया संसारी को ही त्रास देती है– ऐसा नहीं है । कभी-कभी विरक्त साधु-संतों को भी माया त्रास देती है । ऐसे समय में संत श्रीराधाजी का स्मरण करते हैं– ‘श्रीराधे, श्रीराधे, श्रीराधे ।’ श्रीराधाजी को जल्दी दया आती है । श्रीराधाजी कृपा करके दौड़ती हुई आती हैं ।


हजारों वर्ष हो गए– वृन्दावन में श्रीराधाजी कभी बड़ी होती ही नहीं हैं । श्रीराधाजी पाँच-छ: वर्ष की ही रहती हैं । श्रीकृष्ण सात-आठ वर्ष के रहते हैं । आज भी राधाकृष्ण प्रत्यक्ष विराजमान हैं । उनकी नित्यलीला है । संत इसीलिए प्रथम श्रीराधाजी के चरणों का आश्रय लेते हैं ।

प्रथम श्रीराधाजी के चरणों में वंदन करो, फिर श्रीकृष्ण के चरणों में वंदन करो । ‘श्रीधाम’ वृन्दावन है । वृन्दावन में सुन्दर स्वर्ण के सिंहासन पर श्रीराधाकृष्ण विराजमान हैं । उनकी नित्यलीला है– आज भी विराजमान हैं । आप मन से दर्शन करो । प्रथम श्रीराधाजी के चरणों में वंदन करो । फिर श्रीकृष्ण के चरणों में वंदन करो– ‘श्रीकृष्णाय वयं नुम: ।’

जो प्रेम से भगवान के चरणों में वंदन करता है, उसको भगवान शक्ति देते हैं। जिसको भगवान की शक्ति मिली है, उसकी कभी हार नहीं होती । जीव अपनी शक्ति में विश्वास रखकर काम करता है, तब उसकी हार होती है । जीव अल्प शक्ति है, परमात्मा अनन्त शक्तिमान है । कोई भी कार्य करो, तब सर्वप्रथम अपने भगवान के चरणों में वंदन करो– श्रीराधाकृष्ण भगवान की जय !

कथा में पे्रम से ‘जय’ बोलो– आपकी कभी हार नहीं होगी । भगवान की जय बोलने से भगवान को लाभ नहीं है– आपको लाभ है । भगवान की कभी हार नहीं हुई है, और भगवान की कभी हार होने वाली भी नहीं है । हार तो मानव की होती है ।

मानव का जीवन क्या है ? मानव का जीवन बड़ा युद्ध है । माया और मानव का युद्ध हो रहा है । माया की जीत होती है, मानव की हार होती है । माया मानव को संसार में पँâसा देती है । संसार में मजा है– स्त्री बहुत सुन्दर है, पुरुष सुन्दर है– ऐसा समझाकर जीव को माया संसार में फंसा देती है । जीव संसार में अनेक बार दुःखी होता है । दुःखी होने पर भी उसको संसार मीठा ही लगता है । माया की जीत होती है, मानव की हार होती है । मानव की हार क्यों होती है ? क्योंकि प्रेम से यह भगवान की जय बोलता नहीं है । जो प्रेम से भगवान की जय बोलता है–
हृदय में से आवाज आवे, तो मन में जो पाप है, वह बाहर निकल जायेगा । मन शुद्ध होगा, हृदय में भगवान आयेंगे। आपकी हार होवे– ऐसी इच्छा हो, तो आप जय बोलना नहीं । आपकी जीत होवे– ऐसी इच्छा हो, तो प्रेम से बोलो–
श्रीगंगा मइया की जय ! श्रीगोवर्धननाथ की जय !
श्रीद्वारिकाधीश की जय ! श्रीबालकृष्णलाल की जय !
श्रीसद्गुरुदेव की जय ! ॐ नम: पार्वती पतये हर-हर महादेव !

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