लला फिर अइयो खेलन होरी


लला फिर अइयो खेलन होरी


होली के रंगारंग त्यौहार की चर्चा आते ही ब्रजभूमि में राधा-कृष्ण की मुधर क्रीड़ाओं के बीच मनाये जाने वाले होलिकोत्सव की स्मृति अनिवार्य रूप से उपस्थित रहती है। दूसरे शब्दों में यदि यह कहा जाए कि राधा-कृष्ण की होली-लीला की चर्चा के बिना होली के रंगीले त्यौहार का वर्णन  फीका ही रहता हैतो यह अतिशयोक्ति न होगी। हिंदी-साहित्य के रीतिकालीन कवियों ने और वैष्णव संप्रदाय के भक्त कवियों ने श्रीराधाकृष्ण की अलौकिक होली-लीला का जैसा अनुपम वर्णन अपने छंदों और पदों में किया हैवैसा अन्यत्र दुर्लभ है। ब्रज के लोकगीतों और होली-गीतों में श्रीराधाकृष्ण की होली का वर्णन भाँति-भाँति के रूपकों के माध्यम से किया गया है। बल्लभकुल संप्रदाय के सुप्रसिद्ध अष्टछाप कवियों ने भी अपने पदों में होली का अत्यंत रसयुक्त वर्णन किया है। आज भी यह पद और ब्रज-लोकगीत व रसिया फागुन के मौसम में ब्रज के मंदिरों में गूँजते सुनाई पड़ते हैं। ब्रज में होली का त्यौहार पूरे दो महीने तक अपूर्व उल्लास और भक्ति-भावना के साथ मनाया जाता है। इसका प्रारंभ बसंत पंचमी से होता है और चैत्र की नवरात्रि प्रारंभ होने के पूर्व तक कायम रहता है। इस दौर में होली के अनगिनत रूप-रंग विश्वभर के दर्शकों को अपने सम्मोहन में बाँधे रखते हैं। मंदिरों में अपने आराध्य देवों की नियमित सेवा में अबीर-गुलाल चढ़ाने की शुरुआत बसंत पंचमी से हो जाती है। इसके साथ ही मंदिरों में समाज-गायन के दौरान होली के पद और रसियाओं का गायन भी शुरू हो जाता है। रंगभरी एकादशी से टेसू के पूâलों के सुगंधित रंग में केसरगुलाब-जल घोलकर मंदिरों के सेवायत और पुजारी ठाकुरजी की इस प्रसादी को दर्शनार्थी भक्तजनों पर पिचकारी की धार से बिखराते हैं। इस रंग में सराबोर हुए भक्तजन भी रंगों के इस अवगाहन से स्वयं को धन्य और कृतकृत्य मानते हैं। इस बीच ढपमृदंगढोलकतबलाझाँझ और वीणा की स्वरलहरियों के बीच गायकवृंद तरंगायित हो उठते हैं
लाल गोपाल गुलाल हमारी
आँखिन में जिन डारौ जू....
ऐसे-ऐसे सरस पदों से सराबोर ब्रज के मंदिरों की होली वास्तव में एक अनुपम छटा बिखेरती है। इस बीच बरसाना और नंदगांव की लठामार होली का पारंपरिक खेल भी दुनिया भर के ब्रजप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन बरसाना की रंगीली गली में नंदगांव के हुरिहार और बरसाने की गोपियों के बीच जो लठमार होली-क्रीड़ा संपन्न होती है। उसका दर्शन करने के लिए देश-विदेश के अनेक दर्शक और मीडिया-प्रतिनिधि उपस्थित रहते हैं। इस पारंपरिक होली के क्रम में राधारानी की सखियों का प्रतिनिधित्व बरसाने की बालाएं करती हैंजबकि श्रीकृष्ण के सखाओं का प्रतिनिधित्व नंदगांव के हुरिहार करते हैं। यह क्रम दूसरे दिन नंदगांव में दोहराया जाता है। तब बरसाने के हुरिहार और नंदगांव की गोपियां इस लठमार होली-क्रीड़ा को संपन्न करते हैं। मथुरा से ४२ किलोमीटर पश्चिम में बसे यह दोनों गांव परस्पर ८ किलोमीटर के फासले पर अवस्थित होते हुए भी श्रीराधाकृष्ण के दैवीय संंबंध जैसे परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
श्रीराधाकृष्ण की होली के ऐसे ही लीला-चित्रण का वर्णन करते हुए कविराज रत्नाकर’ लिखते हैं
थोरी-थोरी बैस की अहीरन की छोरी संग,
भोरी-भोरी बातन उचारत गुमान की।
कहें रत्नाकर’ बजावत मृदंग-चंग,
अंगन उमंग भरि जोबन उड़ान की।
घाँघरे की घूमि नें समेटि वेंâ कछोटी किये,
अंगन गुलाल भरि अबीर उड़ावती
झोरी भरें रोरीकछु थोरी-सी कमोरी भरें,
होरी चली खेलन किसोरी वृषभानु की।
राधाकृष्ण की होली की रंगलीला के संंबंध में ब्रजभाषासाहित्य में असंख्य पद और रसिया भरे पड़े हैं। एक रसिया में लोकगायक गाते हैं
होरी में लाज न कर गोरीहोरी में....
एक अन्य रसिया में बड़े ही अनोखे भाव व्यक्त करते हुए गाया जाता है
मेरी चुनरी में लग गयौ दाग री,
ऐसौ चटक रंग डार्यौ।
जाकी होरी में लग जाय आग री,
 ऐसौ चटक रंग डार्यौ।
होली में ब्रज के मंदिरों में बड़े ही चित्र-वित्रित ढंग से होली मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहाँ के प्रमुख मंदिरों के डोले’ जब सड़कों से गुजरते हैंतो कई वुंâतल अबीर-गुलाल उड़ाया जाता हैजिससे आसमान की छटा इंद्रधनुषी हो जाती है और सड़वेंâ महीनों तक लाल बनी रहती हैं। ब्रज की होली का एक अन्य रूप यहाँ की प्रसिद्ध फालैन’ की होली में देखने को मिलता है। कहा जाता है कि हिरण्यकश्यपु की बहिन होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर दहन करने के लिए इसी स्थान पर बैठी थी। जिसका प्रतीक प्रहलाद-वुंâड आज भी इस गाँव में विद्यमान है। मथुरा के उपनगर कोसी के समीप स्थित फालैन में होलिका-दहन के दिन प्रहलाद-मंदिर का पुजारी दहकती हुई होली के बीच से जब गुजरता है तो लाखों दर्शकों की भीड़ रोमांचित हो उठती है।
मथुरा के श्रीद्वारिकाधीश मंदिरश्रीकृष्णजन्मस्थानश्रीमथुराधीश मंदिरवृंदावन के श्रीबांकेबिहारी मदिरश्रीराधाबल्लभजी मंदिरश्रीकृष्ण-बलराम (इस्कान) मंदिरगोवर्धन के दानघाटी मंदिर,गोकुल के गोकुलनाथजी मंदिर आदि प्रमुख मंदिरों की होली तो दर्शनीय होती ही है। किन्तु,बलदेव के हुरंगा की चर्चा किए बिना होली का यह वर्णन अधूरा ही माना जाएगा। ब्रज में कहावत प्रसिद्ध है कि ब्रज में होरीबलदेव में हुरंगा। वास्तव में बलदेव का हुरंगा अपने आप में हुड़दंग और उन्माद से भरा हुआ उत्सव है। श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलरामजी का यह गाँव मथुरा से ३६ किलोमीटर पूर्व में स्थित है। यहाँ के प्रसिद्ध दाऊजी-मंदिर में होली के तीसरे दिन यह हुरंगा संपन्न होता हैजिसमें मंदिर के प्रांगण को तालाब की तरह रंग से भर दिया जाता है और गाँव की नववधुऐं अपने देवरों से बीहड़’ होली का प्रदर्शन करती हैंजो कि उनके कपड़ों को तार-तारकर कर उनका कोड़ा’ बनाकर उनकी धुनाई करती हैं। इस हुरंगा को देखने के लिए भी हजारों की संख्या में दर्शक उपस्थित रहते हैं।
कदाचितऐसे ही हुड़दंग में किसी ब्रजबाला ने यह गीत गाया होगा
मेरौ खोय गयौ बाजूबंद रसिया होरी में।
वास्तव में ब्रज की होली इतनी अद्भुत और मस्ती से भरी हुई है कि इसके दर्शकों और रसिकों को पूरे वर्ष इसका इंतजार बना रहता है। स्वयं राधारानी भी इस रंगीले त्यौहार के पुन:-पुन: आगमन की प्रतीक्षा करती हैं
फाग के भीर अभीरन में गहिगोविंदै भीतर लै गई गोरी।
धाइ करी मन की पद्माकर’, ऊपर नाइ अबीर की झोरी।
छीन पीतंबर वंâबर तें,
फिर दीनी मीजि कपोलन रोरी।
नैन नचाइ कही मुसकाइ,
लला फिर आइयो खेलन होरी।

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