सत्संग-नवनीत (जुलाई २०१२)

सत्संग-नवनीत

(गुरु-पूर्णिमा विशेष)

गुरु ही हैं अन्तिम समाधान


सर्वसिद्धि  प्रदाता   च   संसार-भय  नाशकम्‌  ।
श्रीगुरु-लिंगं*,   परमानंदं,   महामोक्ष-प्रदायकम्‌  ॥
 (गुरु-तत्व-बोधनी)

          '' गुहृातिगुहृा गुरु-गरिमा का गान करने वाला यह गोपनीय मंत्र साधकों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है । इसकी सतत्‌ साधना से ही श्रद्धावान साधक धर्म का मर्म जान पाते हैं और सकल सिद्दियों का ज्ञान प्राप्त कर  सांसारिक भय से मुक्त हो जाते हैं । श्रीगुरुदेव ही अनुग्रह करके जीव को मोक्षजन्य परमानंद का आस्वादन कराते हैं ।''
         
आधुनिक उन्मुक्त एवं उच्छृंखल सामाजिक-पारिवारिक वितण्डावाद के दौर में मानव अपने मन की शांति और स्वाधीनता को खो बैठा है । स्वार्थ के क्रूर शिकंजे में मनुष्य की हँसी और हसरतें दम तोड़ रही हैं । मानवता की देह पर रिसते हुए कोढ़ की भाँति लोग ‘रिसते रिश्ते’ ढोये जा रहे हैं । चंद श्वासों की मेहमान यह जिंदगी सिर्फ ग़फलत में ही गलती चली जा रही है । 

ऐसे में– ‘जब जागे, तभी सबेरा’– वाली उक्ति को आदर्श मानकर यथाशीघ्र ‘श्रीगुरु-सत्संग’ का आश्रय ले लेना ही समझदारी है । देह का ‘पारण’ और सन्देह का ‘निवारण’ करने वाले ‘श्रीगुरु’ ही हैं । देह में विद्यमान आनन्दस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करा देने में समर्थ ‘श्रीगुरु’ की प्राप्ति पूर्वसंचित सत्कर्मों का ही फल है ।

मानव की आयु मुट्ठी की रेत की तरह फिसलती जा रही है । अत: आज का ‘प्रमाद’ कल का ‘विषाद’ न बन जाये– इस बात को ध्यान में रखते हुए ‘श्रीगुरु-शरणागति’ के लिए मन का प्रबोधन करें–
का   बरखा  जब   कृषी  सुखाने ?
समय चुके पुनि का   पछिताने  ??

पहचान, प्रतीक,चिन्ह                                           –प्रेमी बाबा

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सम्पादकीय


सद्विचारों की पीयूष-धारा


‘विचार’ व्यक्तित्व का आईना होते हैं । व्यक्ति के अनुभव, अध्ययन और संगत के आधार से ‘विचार’ मूर्त रूप लेते है । सद्विचार जहाँ मानव की आत्मिक उन्नति और कल्याण के कारक हैं, वहीं दुर्विचार उसकी दुर्गति के निमित्त बन जाते हैं ।

मेरे पूज्य पिताजी एवं गायत्री-गुरु आदरणीय श्रीप्रेमी बाबा जीवन-पर्यन्त स्वाध्याय, सत्संग और सद्विचार- संचय को निमित्त बनाकर शब्दब्रह्म की साधना में तल्लीन रहे हैं । अनेक पत्र-पत्रिकाओं, आध्यात्मिक ग्रंथों, स्मारिकाओं तथा आलेखों-आख्यानों के माध्यम से उन्होंने सद्विचारों की पीयूष-धारा को प्रसारित और अग्रसारित किया है; और आज भी इस बुद्धि-शुद्धिकारिणी, भव-भय-हारिणी सद्विचार-सरिता को अपनी वाणी और लेखनी के द्वारा प्रवाहमान बनाये रखने के लिए सतत् साधना-सन्नद्ध हैं ।

उनके प्रेमानुरागी शिष्यों सहित साधक-समाज को उनके सत्संग-सद्विचार की बयार से सुवासित करने के लिए पूज्य पिताजी की इच्छानुसार उनके द्वारा संस्थापित संस्था ‘लोकसेवा प्रतिष्ठान’ को अब परमार्थ- पथ को प्रशस्त करने वाले सद्विचार- प्रचार-प्रसार के अभियान के रूप में रूपान्तरित किया जा रहा है ।

‘सत्संग-नवनीत’ इस अभियान की ध्वजा है । इस परिपत्रनुमा लघु-पत्रिका के माध्यम से हम सत्संग-प्रेमी समुदाय तक पूज्य बाबा के उत्प्रेरक विचार, वेदांत के सिद्धान्तों की सरलतम व्याख्यायें, संतों, विद्वानों, दार्शनिकों और प्रबुद्ध लेखकों के शब्दों में पहुँचाने का प्रयास करेंगे । इसके अतिरिक्त भारतीय मनीषा की रत्न-मंजूषा के रूप में विद्यमान प्राचीन सद्ग्रंथों एवं इतिहास-पुराण-शास्त्रादि के मुख्यांश भी आपको ‘सत्संग-नवनीत’ के पृष्ठों पर पढ़ने को मिलते रहेंगे । शब्दब्रह्म की आराधना के इस अभियान में सत्संगी सज्जनों का हार्दिक सहकार भी अपेक्षित है ।

आशा है, आपको हमारा यह प्रयास अवश्य ही पसंद आयेगा । ‘गुरु-पूर्णिमा-अंक’ के रूप में प्रस्तुत इस प्रवेशांक के बारे में अपनी प्रतिक्रिया हमें अवश्य भेजें ।

–विवेक उपाध्याय


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गुरु के बिना ब्रह्मानंद तो क्या,
सांसारिक सुख भी दुर्लभ है

परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से ही सम्भव है । जब तक गुरु की कृपा से हमारी अन्त:शक्ति नहीं जागती, अन्त:ज्योति नहीं प्रकाशित होती, अन्तर के दिव्य ज्ञान-चक्षु नहीं खुलते- तब तक हमारी जीव-दशा नहीं मिटती। इसलिए अन्त:विकास के लिए और दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की, अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सद्गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है ।

जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिना ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अन्धकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं । गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पति या पत्नी से भी अधिक है । गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है । अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है ।

गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है । वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं । गुरु वे हैं, जो शिष्य की अन्त:- शक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण कराते हैं । गुरु की व्याख्या यह है– जो शक्तिपात द्वारा अन्त:- शक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में परमेश्वर की शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं । भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते-जी मोक्ष देते हैं– वे परमगुरु शिव से अभिन्न रूप हैं । वे शिव, शक्ति, राम, कृष्ण, गणपति और माता-पिता हैं । वे सभी के पूजनीय परमगुरु शिष्य की देह में ज्ञान-ज्योति को प्रज्जवलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीला-विनोद में ही नर को नारायणस्वरूप की आनंद धारा में मस्त रहने की कला सिखा देते हैं । ऐसे गुरु महामहिमावान हैं । उनको साधारण जड़-बुद्धि वाले नहीं समझ सकते ।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है । किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया, तो हम उसे गुरु मान लेते हैं । थोड़ा प्रवचन सुनाया, तो उसे गुरु मान लेते हैं । किसी ने मंत्र दिया या तंत्र-विधि बतलायी, तो उसे गुरु मान लेते हैं । इस तरह अनेकजनों में गुरु-भाव करके अंत:समाधान से हम बंचित रह जाते हैं । अन्त में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं । पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं ।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत । गुरु की महानता तब समझ में आती है, जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है । गुरु अपने शिष्यों को साधना के उच्चतम शिखर पर ले जाकर उनके सत्यस्वरूप का उन्हें साक्षात्कार करवा कर, सत्यस्वरूप शिव में मिलाकर ‘शिव’ ही बना देते हैं । ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं है ? उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं । वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं । इसीलिए गुरु-सहवास (सानिध्य), गुरु आश्रमवास, गुरु-सेवा, गुरु-गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में प्रवाहित होने वाले चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धि-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ है– इसमें क्या आश्चर्य है ?
                                                                                                                            -स्वामी मुक्तानंद

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गुरू-शिष्य-सम्बन्ध


विचार्य यत्नात् विधिवत् शिष्यसंग्रहमाचरेत् ।
अन्यथा शिष्यदोषेण नरकस्थो भवेत् गुरु: ।।
                                                                                (रुद्रयामल : २/८६)
गुरु को बहुत विचार करके ही किसी को शिष्य बनाना चाहिये, अन्यथा शिष्य के दोष के कारण गुरु नरक में जा सकता है ।

मंत्रिदोषश्च  राजानं जायादोष: पतिं यथा ।
तथा प्राप्नोत्यसंदेहं शिष्य पापं गुरुं प्रिये ।।
                                                                      (कुलार्णव-तन्त्र : ११/१०९)
जिस प्रकार मन्त्री का पाप राजा को और स्त्री का पाप पति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निश्चय ही शिष्य का पाप गुरु को प्राप्त होता है ।

यत्रानन्द: प्रबोधो वा नाल्पमप्युपलभ्यते ।
वत्सरादपि शिष्येण सोऽन्यं गुरुमुपाश्रयेत् ।।
                                                                       (शिवपुराण : १५/४६-४७)
जिसके पास एक वर्ष तक रहने पर भी शिष्य को थोड़े से भी आनन्द और प्रबोध की उपलब्धि न हो, वह शिष्य उसे छोड़कर दूसरे गुरु का आश्रय ले ।

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मन्त्र-सिद्धि में गुरु की आवश्यकता

मन्त्र-सिद्धि के लिए साधक को गुरु की नितान्त आवश्यकता होती है । इसलिए साधक अपने लिए सामथ्र्यवान गुरु की खोज करता है और चयन करता है । गुरु भी शिष्य की सुपात्रता से प्रभावित होने के उपरान्त ही उसे अपना शिष्य स्वीकार करता है । जब गुरु साधक को अपना शिष्य बनाता है, तभी वह शिष्य को दीक्षित करता है । मन्त्र की सिद्धि और शक्ति की दीक्षा देता है । गुरु अपने शिष्य को मंत्र की दीक्षा शीघ्र भी दे सकता है और देर से भी । वह कब देगा यह नहीं कहा जा सकता । वह शिष्य को यह समझकर कि यह दीक्षा देने योग्य हो गया है, इसे दीक्षा देना निरर्थक सिद्ध नहीं होगा- यह जानकर उसे उचित समय पर दीक्षा देता है– यह गुरु की इच्छा पर निर्भर करता है ।

गुरु दीक्षा प्राप्त होने के बाद साधक की साधना का मार्ग सरल व सुगम हो जाता है, उसके आन्तरिक ज्ञान का विकास हो जाता है जिससे गुरु की शक्तिरूपी दीक्षा से साधक की शारीरिक व मानसिक अशुद्धियाँ स्वयंमेव विलुप्त हो जाती हैं । क्योंकि दीक्षा एक प्रकार से शक्तिरूप व तेजपुंज होती है । इसलिए गुरु की दीक्षा को हमारी भारतीय संस्कृति में एक अमूल्य व श्रेष्ठ शक्तिदान कहा गया है ।

गुरु की महानता, श्रेष्ठता सर्वोपरि व निर्विवाद है । शास्त्र में बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों द्वारा गुरु को ईश्वरतुल्य ही नहीं, अपितु उससे भी महान् कहा गया है । ऐसे-ऐसे महान् गुरुओं का इतिहास गौरवशाली व गरिमापूर्ण है जो वास्तव में ही साधक के लिए ईश्वर से भी बढ़कर सिद्ध हुए हैं और होते रहेंगे । भगवान राम और कृष्ण ने महर्षि विश्वामित्र, गुरु वशिष्ठ व संदीपन जैसे गुरुओं की शिष्यता ग्रहण कर गुरु की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया है ।
सन्त कबीरदासजी ने तो गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि–

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,   
काके    लागूं   पाँय ।
बलिहारी  गुुरु आपनो, 
गोविन्द  दियो  बताय ।।

अर्थात्, कबीरदासजी गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मेरे समक्ष गुरु और गोविन्द अर्थात् भगवान दोनों ही खड़े हैं । परन्तु समझ में नहीं आता कि पहले मैं किसको प्रणाम करूँ । फिर, गुरु की श्रेष्ठता बताते हुए स्वयं ही उत्तर देते हैं कि हे गुरुवर ! आप ही श्रेष्ठ व पूज्यनीय हैं, क्योंकि आपने ही तो हमें ईश्वर का ज्ञान कराया है, अन्यथा मैं तो ईश्वर के सम्बन्ध में बिल्कुल ही अनभिज्ञ था– कोरा कागज था । इसलिए गुरु को ही पहले प्रणाम करना चाहिए फिर ईश्वर को ।

कबिरा  हरि के रूठते,  
गुरु  के  सरने  जाए ।
कह  कबीर गुरु रूठते, 
हरि नहीं होत सहाय ।।

सन्त कबीरदासजी कहते हैं कि यदि ईश्वर रूठ जाये तो गुरु की शरण प्राप्त हो जाती है, परन्तु यदि गुरु रूठ जाये तो कहीं भी शरण प्राप्त नहीं होती । इस प्रकार कबीरदासजी ने गुरु की श्रेष्ठता का वर्णन किया है ।
सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरु चाणक्य, स्वामी विवेकानन्द के धार्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस आदि जगत्-प्रसिद्ध हैं ।

गुरु-दीक्षा के भेद

शास्त्रसम्मत गुरु-दीक्षा के तीन भेद वर्णित हैं । (१) ब्रह्म-दीक्षा (२) शक्ति-दीक्षा (३) मंत्र-दीक्षा।
ब्रह्म-दीक्षा– इसमें गुरु साधक को दिशा-निर्देश व सहायता कर उसकी कुण्डलिनी को प्रेरित कर जागृत करता है और ब्रह्मनाड़ी के माध्यम से परम शिव में आत्मसात् करा देता है । इसी दीक्षा को ब्रह्म-दीक्षा या ब्राह्मी दीक्षा कहते हैं ।

शक्ति-दीक्षा– सामथ्र्यवान् गुरु साधक की भक्ति, श्रद्धा व सेवा से प्रसन्न होकर अपनी भावना व संकल्प के द्वारा दृष्टि या स्पर्श से अपने ही समान कर देता है । इसे शक्ति-दीक्षा, वर-दीक्षा या कृपा-दीक्षा कहते हैं ।
मन्त्र-दीक्षा– मन्त्र के रूप में जो ज्ञान-दीक्षा अथवा गुरु-मन्त्र प्राप्त होता है, उसे मन्त्र-दीक्षा कहते हैं ।

गुरु सर्वप्रथम साधक को मन्त्र- दीक्षा से ही दीक्षित करते हैं । तत्पश्चात् शिष्य अर्थात् साधक की ग्राह्य क्षमता, योग्यता, श्रद्धा-भक्ति आदि का निर्णय करने के पश्चात् ही ब्रह्म-दीक्षा व शक्ति-दीक्षा से दीक्षित करते हैं, अन्यथा नहीं। इसलिए यह प्राय: देखा जाता है कि एक ही गुरु के कई शिष्य होते हैं, परन्तु सभी एक स्तर के न होकर भिन्न-भिन्न स्तर के होते हैं । कई एक साधक मन्त्र-दीक्षा तक ही सीमित रह जाते हैं । वैसे गुरु साधक को सर्वगुण सम्पन्न समझकर े बिना मन्त्र-दीक्षा दिए भी प्रसन्न होकर कृपा करके ब्रह्म-दीक्षा तथा शक्ति-दीक्षा दे सकते हैं । 

इन उपरोक्त दीक्षाओं के अतिरिक्त चार प्रकार की और दीक्षाओें का शास्त्रों में उल्लेख मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैं–

१-कलावती दीक्षा– इसमें सिद्ध व सामथ्र्यवान् गुरु शक्तिपात की क्रिया द्वारा अपनी शक्ति को साधक में आत्मसात् कर उसे शिवरूप प्रदान करता है ।
२-वेधमयी दीक्षा– इसमें सिद्ध व सामथ्र्यवान् गुरु साधक पर कृपा करके अपने शक्तिपात के द्वारा साधक के षट्चक्र का भेदन करता है ।
३-पंचायतनी-दीक्षा– इसमें देवी, विष्णु, शिव, सूर्य तथा गणेश इन पाँचों देवताओं में से किसी एक को प्रधान देव मानकर वेदी के मध्य में स्थापित करते हैं तथा शेष चारों देवताओं को चारों दिशा में स्थापित करते हैं, फिर साधक के द्वारा पूजा एवं साधना करवा कर दीक्षा दी जाती है ।
४-क्रम-दीक्षा– इसमें गुरु व साधक का तारतम्य बना रहता है । धीरे-धीरे गुरु-भक्ति में श्रद्धा एवं विश्वास बढ़ता जाता है, तत्पश्चात् गुरु के द्वारा मन्त्रों व शास्त्रों तथा साधना-पद्धतियों का ज्ञान विकसित होता जाता है ।

दीक्षित साधक के नियम


दीक्षित साधक के लिए कुछ पालनीय नियम हैं, जिन्हें पालन करना अत्यावश्यक होता है । साधारणत: वे निम्न हैं–
१. गुरु-कृपा से प्राप्त मंत्र को गुप्त रखना चाहिए ।
२. गुरु-मंत्र को सभा, परिवार या मित्र-समुदाय में भी प्रकट नहीं करना चाहिए ।
३. गुरु द्वारा निर्देशित पूजा-विधि को भी कहीं किसी से प्रकट नहीं करना चाहिए ।
४. धर्मानुसार गुरु के प्रति व मन्त्र के प्रति पूर्ण सम्मान, श्रद्धा-भक्ति व विश्वास रखते हुए उनकी रक्षा करनी चाहिए ।
५. प्राणियों पर दया करनी चाहिए।
६. वैष्णवों तथा धर्माचार्यों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए ।
७. असत्य, पाप, निन्दा, द्वेष, क्रोध, ईष्र्या आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए ।
८. पूर्ण सदाचारी व आस्तिक बनकर गुरु के आदेशों का पालन करना चाहिए ।
इस प्रकार उपरोक्त नियमों का पालन करते हुए गुरु के आदेशानुसार जो साधक अपना जीवनयापन करता है; वह साधक अपने शिष्य-धर्म का पालन करते हुए अपनी साधना में सफल होता है, अन्यथा साधना सफलीभूत नहीं होती ।
-डा. राम कृष्ण उपाध्याय

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बोध-कथा

अनुभव का ज्ञान 


एक थे गुरुजी । बहुत पहुँचे हुए विद्वान्, और एक था उनका शिष्य बड़ी जिज्ञासु प्रवृत्ति वाला । शिष्य अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता था, गुरुजी उसकी लगन जानते थे, इसलिए नये-नये विषयों का ज्ञान उसे कराते । 

एक दिन शिष्य ने अपने गुरुजी से विनयपूर्वक प्रश्न किया, ‘क्या आपको दुनिया का समस्त ज्ञान है ?’

‘नहीं वत्स, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, यह तो अपार है । किसी एक व्यक्ति के लिए विश्व का समस्त ज्ञान प्राप्त करना संभव भी नहीं है ।’ –गुरुजी ने समझाते हुए कहा ।

शिष्य जिद कर बैठा– ‘गुरुजी, चाहे जो भी हो, मैं तो दुनिया का समस्त ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ । आप मुझ पर कृपा कीजिए । मुझे विश्व के समस्त ज्ञान-कोश दिखला दीजिए ।’

गुरुजी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, किन्तु शिष्य था कि अपनी जिद पर ही अड़ा रहा । इस पर गुरुदेव ने कुछ देर विचार किया, फिर उसे लेकर संसार के ज्ञान-ग्रंथो का विशाल भंडार दिखलाने को चल दिये । शिष्य गुरु की कृपा से कृतज्ञ हो गया । 

शिष्य उन ज्ञान-ग्रंथों को पढ़ने लग गया । बरसों बीत गये, किन्तु ज्ञान-ग्रंथों की सीमा समाप्त होती नहीं दिखी । लगातार पढ़ते रहने पर भी लगता कि अभी भी अनगिनत ज्ञान-ग्रंथ बाकी ही रह गये हैं । 

उधर गुरुदेव समय के साथ वृद्ध हो चले, लेकिन शिष्य की ज्ञान- पिपासा शांत ही न होती थी । एक दिन वह आया, जब गुरुजी बहुत वृद्ध हो मृत्यु-शैय्या पर जा पहुँचे । ज्ञान-प्राप्ति के लिए जुटे व अपनी धुन के पक्के उस शिष्य ने अपने प्रकाश-स्तंभ का अंत नजदीक देख दुःख भरे शब्दों में उनसे कहा– ‘आप इस प्रकार चले जायेंगे, तो मुझे विश्व के बाकी ज्ञान-ग्रंथों का परिचय कौन देगा ?’

अब गुरुजी ने ज्ञान-भंडार का रहस्य बतलाते हुए कहा– ‘वत्स, तुमने अब तक जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह तो कुछ भी नहीं है । ज्ञान-ग्रंथों से करोड़ों गुना ज्यादा ज्ञान तो इस संसार में यों ही बिखरा पड़ा है । बेटा, याद रखो, व्यावहारिक स्तर पर अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सर्वोपरि ज्ञान है । कितना भी ज्ञान प्राप्त करो, कम ही है । वस्तुत: ज्ञान की कोई सीमा नहीं । यह कहकर गुरुजी चिरनिद्रा में लीन हो गये, लेकिन शिष्य को ज्ञान की सीमा का भान हो चुका था ।

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हे  मेरे  गुरुदेव !


हे  मेरे  गुरुदेव,  करुणा-  
सिन्धु करुणा कीजिये ।
हूँ अधम आधीन अशरण 
अब शरण में लीजिये ।।
खा  रही  गोते  हूँ  मैं  
भवसिन्धु के  मझधार में ।
आसरा  है  दूसरा   कोई   
न   अब  संसार  में ।।
मुझमें है जप-तप न साधन 
और नहीं कुछ ज्ञान है ।
निर्लज्जता  है  एक  बाकी  
और बस  अभिमान है ।।
पाप - बोझे    से    लदी  
नैया  भंवर  में  आ  रही ।
नाथ  दौड़ो,  अब  बचाओ  
जल्द  डूबी  जा  रही ।।
आप भी  यदि छोड़  देंगे 
फिर  कहाँ  जाउँâगी मैं ।
जन्म दुःख  से  नाव  वैâसे  
पार   कर  पाऊँगी  मैं ।।
सब जगह भटकी हूँ गुरुवर, 
ली शरण अब आपकी ।
पार  करना  या  न  करना  
दोनों   मर्जी   आपकी ।।

निवेदक: गिरिजा भरतिया
पूर्णिया (बिहार)

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बोल-अनमोल 


¨ सत्संग शक्तियों का खजाना है ।

¨ सबसे कीमती है गुरु और माँ-
बाप की आज्ञा ।

¨ जो हमसे कुछ भी चाहते हैं, वे 
हमारे गुरु कैसे हो सकते हैं ?

¨ सच्चा गुरु पहरेदारी करके हमेशा 
आत्मा में जागना सिखाता है ।

¨ माया के गड्ढे से गुरु और संत 
ही खींचकर निकालते हैं ।

¨ गंगा नहाने से नहीं, सत्गुरु के 
सत्संग से शुद्धि होती है ।

¨ गुरु के ज्ञान का मजा तब आएगा 
जब अज्ञान से थकान आएगी ।

¨ जो ज्ञान से दिल लगायेगा– ज्ञान 
उसका है, गुरु अपने पास कुछ 
नहीं रखता ।

¨ सच्चा भक्त ही गुरु के ज्ञान को 
समझता है, बाकी सब शास्त्रों में 
फँसे रहते हैं ।

¨ गुरु का ज्ञान सबको मिलता है, 
पर उसका उपयोग कोई कैसे 
करता है, तो कोई कैसे ।

¨ ब्रह्मज्ञानी गुरु के सामने ही अपने 
अन्दर की ज्योति जगा लो, नहीं 
तो भटक जाओगे ।

¨ इन्द्रियों सहित इस शरीर में २४ 
नौकर हैं, जब तक गुरु नहीं मिलता 
अराजकता रहती है । गुरु के मिलते 
ही शान्ति आ जाती है ।

¨ गुरु परीक्षा लेकर ऊपर-नीचे 
करके समानता में ला देता है । 
फिर कहीं भी जायें, एकबार 
समानता का बीज आ गया तो 
फिर कभी नहीं टूटेगा ।

¨ ज्ञान समझना है तो गुरु से चमाट 
खानी होगी– जैसे राजा जनक को 
गुरु ने तीन चमाटें लगाई थीं । 
राजा जनक ने अष्टावक्र को अपना 
गुरु स्वीकार किया था ।

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